पुराणों के दशलक्षण ।

श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्मा

पुराणों के दशलक्षण ।

अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः । मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥

श्रीमद्भागवतम् द्वितीयस्कन्ध दशमोऽध्यायः में पुराणों के दशलक्षण नहीं, परन्तु श्रीमद्भागवत के विषयवस्तु का निर्द्देश हैं । यह है सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति (कर्मवासना से बन्धन), मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति, आश्रय ।

श्रीमद्भागवतपुराणम् द्वादशस्कन्धः सप्तमोऽध्य़ायः  में पुराणों के दशलक्षण कहा गया हैं –

सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्तिरक्षान्तराणि च । वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः ॥ ९ ॥

पूर्वोक्त पुराण के साधारण पञ्च लक्षण के साथ साथ विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, हेतु तथा अपाश्रय को भी पुराण लक्षण कहा गया है ।

पुरुषानुगृहीतानाम् एतेषां वासनामयः । विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद्बीजं चराचरम् ॥ १२ ॥

विसर्ग (ब्रह्मादिस्थावरान्त सम्पूर्ण चराचर जगत् के वासनामय एक बीज से अन्य बीज के निर्माण का वर्णन),

वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणाम् अचराणि च ।  कृता स्वेन नृणां तत्र कामात् चोदनयापि वा ॥ १३ ॥

अचर पदार्थ (चर प्राणियों के अचर अंश भी, जैसे दुग्ध) चर प्राणियों की वृत्ति – जीवन निर्वाह के सामग्री है । प्राणियों ने अपने कामना वश स्वयं यह निर्णय करलेते हैं, तथा कुछ परिस्थितिवश निर्णय करते हैं । उसका शास्त्रसम्मत व्याख्या पुराणों में मिलते हैं ।

रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे । तिर्यङ्‌मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः ॥ १४ ॥

जब जब कुछ अधर्मी पृथ्वीपर क्षोभ उत्पन्न करते हैं, उस क्षोभ के कारण पृथ्वीपर असन्तुलन होता है । उस क्षोभ को शान्त कर साम्यता लाने तथा प्राणियों के रक्षा करने के लिए, केन्द्रशक्ति बिना किसी अन्यशक्ति के सहायता से अतात्त्विक अन्यथाभाव (तत्त्वतः वही रहते हुए, वाह्यतः भिन्न आकार लेना) लेकर प्रकट होते हैं । उसीको अवतार कहते हैं । उसका वर्णन पुराणों में मिलता है ।

हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेः अविद्याकर्मकारकः ।  यं चानुशायिनं प्राहुः अव्याकृतमुतापरे ॥ १८ ॥


जीव ही सृष्टि-प्रलय के हेतु हैं । जीव ही अविद्यावश (शास्त्र विहित) कर्म्म – (शास्त्र प्रतिषिद्ध) विकर्म्म – (न शास्त्र विहित, न शास्त्र प्रतिषिद्ध) अकर्म्म करते हुए सुख-दुःख-क्लेश भोग करता है । जो लोग आत्मज्ञान प्राप्त कर जीवद्दशा में जीवन्मुक्तवत् आचरण करते हैं, उन्हे अनुशायि कहते हैं (या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।। गीता २.६९।।) । अनु अर्थात् पश्चात् शायि सोया हुआ – सोने के पश्चात् जाग्रत अवस्था आने के कारण जीवन्मुक्तको अनुशायि कहते हैं । उस अव्याकृत (प्राकृत) अवस्था का विचार पुराणों में किया गया है ।


व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत् स्वप्नसुषुप्तिषु । मायामयेषु तद्ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः ॥ १९ ॥

जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्थात्रय के अभिमानी वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ रूप देवसत्य है । स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य रूपी त्रय अन्तर्यामी ब्रह्मसत्य है । यह सगुणब्रह्म के अपाश्रय है । ब्रह्म ही सबका आश्रय है । अतः इसे अपाश्रय (प्रतिफलित – दृश्य – आशय) कहा गया है । पुराणों में इसका  विचार किया गया है ।

पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु । बीजादिपञ्चतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम् ॥ २० ॥

जिसे हम द्रव्य कहते हैं, उसे नाम-रूप-कर्म के द्वारा निर्द्देश करते हैं । यह हमारे वाह्यजगत् है । उसका अस्ति-बर्द्धते-विपरुणमते-अपक्षीयते-विनश्यति आदि पञ्च अवस्था प्राप्त होती है । परन्तु इन सबके मध्य में उसका नाम-रूप-कर्म वही रहता है । वही प्रतिनियत परिवर्त्तनशील विश्व का आश्रय है ।

विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम् । योगेन वा तदात्मानं वेदेहाया निवर्तते ॥ २१ ॥

जब कर्म्मफलभोग शेष हो जाताहै अथवा योगबलसे अथवा ज्ञानाग्निद्वारा सारे कर्म्मफल भस्मीभूत हो जाता है, तब चित्त विषयभोग से विरत हो कर अहंब्रह्मास्मि का चेतना जागरित होता है । तब विदेहमुक्ति लाभ होता है ।