पदार्थधर्मसंग्रहाख्यम् का विज्ञान – The science of Padartha Dharma Sangraha of Prashastapada
Basudeba Mishra
आधुनिक पदार्थविज्ञानमें ऐसा कोइ सिद्धांत नहीं जो पदार्थधर्मसंग्रह में नहीं है । पदार्थधर्मसंग्रह में जो सिद्धान्त हैं, वहाँ तक पहुँचने के लिये आधुनिक विज्ञानको कई शताब्दियाँ लगजायेंगे । जहाँ दोनोंमें भेद है, वहाँ पदार्थधर्मसंग्रह ही सटीक है – आधुनिक विज्ञान नहीं, यह किसीभी मञ्चपर प्रमाणित किया जा सकता है । दुःख का विषय है कि इसे हमारे वैशेषिक के अध्यापक तथा वेद के आचार्य नहीं जानते । और हमारे विज्ञानी इसके नाम सुनते ही नासा सङ्कोचन करते हैं, जब कि NASA इस विज्ञानके प्रति धीरेधीरे आकृष्ट हो रही है । यहाँ केवल साङ्केतिकरूपसे कुछ उद्धरण दिेए जारहे हैं, जो किसी टीकामें नहीं मिलते ।
कणाद ने वैशेषिकसूत्र (१।१।६) में निम्नलिखित सत्रह गुणों का उल्लेख किया है- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ।
रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणाः । वैशेषिक-१.१.६ ।
प्रशस्तपाद ने उल्लिखित ‘च‘ पद को आधार बनाकर निम्नलिखित सात गुणों को जोड़कर गुणों की संख्या २४ तक पहुँचा दी – गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द । इन चौबीस गुणों को सब मानते हैं ।
प्रश्न है कि कणाद ने सत्रह गुणों का उल्लेख क्यों किया – चौबीस गुणों को क्यों नहीं । यदि वह स्वल्पाक्षर लिखना चाहते थे, तो रूपादि गुणाः अथवा रूपादि चतुर्विंशति गुणाः कहते । गुरु इन गुणों के नाम निर्देश कर उनका व्याख्या करते । यदि वह असन्दिग्ध अथवा विश्वतोमुख लिखना चाहते थे, तो पुरे चौबीस गुणों को लेखना चाहिए था । कणाद जैसे महर्षि बिना कारण कुछ नहीं करते । तो यहाँ कारण क्या है । इसके पीछे गूढ विज्ञान रहस्य छिपा हुआ है ।
वहिर्हेत्वनपेक्षी तु स्वभावोऽथ प्रकीर्त्तितः ।
निसर्गश्च स्वभावश्च इत्येष भवति द्विधा ।
निसर्गः सुदृढाभ्यासजन्यः संस्कार उच्यते ।
अजन्यस्तु स्वतः सिद्धः स्वरूपो भाव उच्यते । (वाचस्पत्यम्)
रूपरसादि सप्तदशगुण स्वभावज गुण है । गुरुत्वादि सप्तगुण आवहादि वायुप्रेरित आगन्तुक निसर्ग गुण है । प्रशस्तपादभाष्य से उदाहरण दिया जा रहा है ।
गुरुत्वं …. पतनकर्मानुमेयम् । कर्म का क्षणिकत्वलक्षण होने से पतनकर्मानुमेय गुरुत्व भी क्षणिक ही होगा । कहागया है कि –
चन्द्रार्कमध्यमा शक्तिर्यत्रस्था तत्र बन्धनम् (confinement) । (योगकुण्डल्युपनिषद् ३।७)
खं सन्निवेशयेत् खेषु चेष्टनस्पर्शनेऽनिलम् ।
पक्तिदृष्ट्योः परं तेजः स्नेहेऽपो गाञ्च मूर्तिषु ।
शक्तिः कार्यानुमेया हि यद्गतैवोपलभ्यते ।
तद्गतैवाभ्युपेतव्या स्वाश्रयान्याश्रयापि च ।
अतः कर्म का एकद्रव्यवत्व लक्षण होने से गुरुत्व आवह वायुप्रेरित आगन्तुक गुण है । (आ समुच्चये + वः॒अँ॑ प्राप॑णे) ।
इसे आधुनिकविज्ञान में weight = mass x acceleration due to gravity कहते हैं । आधुनिकविज्ञान के Fly-by Anomaly का समाधान भी यही है ।
द्रवत्व – रूपाद्युत्पत्तिसमकालं कारणगुणप्रक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यते । अतः यह प्रवह वायुप्रेरित आगन्तुक गुण है । (प्रथयतीति – गतौ, प्रकर्ष) । आधुनिक माध्याकर्षण शक्ति (उरुगायप्रतिष्ठा – motion against a common barycenter based on relative mass) का प्रभव यही है ।
स्नेह – गुरुत्ववन्नित्यानित्यत्व निष्पत्तयः लक्षणसे यह अनुवह वायुप्रेरित आगन्तुकगुण है। (अनु हीने – अष्टाध्यायी 1-4-85, पश्चादर्थे)।
आधुनिकविज्ञान के Pioneer Anomaly का समाधान यही है ।
संस्कार – निमित्तविशेषापेक्षात् कर्मणो जायते । सं सम्यक् + कॄ विक्षे॒पे + भावे घञ् । प्रतियत्न, गुणान्तर आधान । अतः यह संवह वायुप्रेरित आगन्तुकगुण है।
आधुनिकविज्ञान के inertia and Newton’s laws of motion, इसीमें है ।
धर्म और अधर्म – धर्म अन्त्यसुखसंविज्ञानविरोधी … संयोगविशुद्धाभिसन्धिजः । अधर्म विहिताकरणं … अपेक्षात्ममनसोः संयोगादधर्मस्योत्पत्तिः । संयोगापेक्षी होने से यह विवह और परावह वायुप्रेरित आगन्तुकगुण है । वि विशेषवैरूप्यनञर्थगतिदानेषु । परा विमोक्षः, प्रत्यावृत्तिः, धर्षणम् ।
Voyager -2 का शनि कक्षा के पश्चात् अचानक दिशा परिवर्तन के कारण यही हैं ।
शब्दः – श्रोत्रग्राह्यः क्षणिकः कार्यकारणोभयविरोधी। विन्दुवातग्न्यम्वराणां । अत्र शकार बिन्दुः, बकार वातः, दकार अग्निः विसर्गाश्चाकाशः। अतः यह परिवह वायुप्रेरित आगन्तुकगुण है । परि सर्वतोभावः । इसीलिए हम सर्वत्र space sounds सुनते हैं ।
इनका तत्त्व ऋग्वेदः 1-164-15 साकंजानां सप्तथमाहुरेकजं षळिद्यमा में देखना चाहिए ।
सा॒कं॒जानां॑ स॒प्तथ॑माहुरेक॒जं षळिद्य॒मा ऋष॑यो देव॒जा इति॑ । तेषा॑मि॒ष्टानि॒ विहि॑तानि धाम॒शः स्था॒त्रे रे॑जन्ते॒ विकृ॑तानि रूप॒शः ॥ ऋग्वेदः १.१६४.१५
आचार्यः प्रशस्तपादः पदार्थधर्मसंग्रहः के कर्मनिरूपण प्रकरणम् में कहते हैं – “वेगो मूर्तिमत्सु पञ्चसु द्रव्येषु निमित्तविशेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक्क्रियाप्रबन्धहेतुः स्पर्शवद्द्रव्यसंयोगविशेषविरोधी क्वचित् कारणगुणपूर्वक्रमेणोत्पद्यते” । इसमें Newton’s laws of motion तथा उससे भी अधिक अन्तर्निहित है । यथा –
1) वेगः निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते।
Meaning: Change of motion is due to impressed force.
This is same as Newton’s first law of motion.
2) वेगः निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतुः।
Meaning: Change of motion is proportional to the impressed force and is in the direction of the force.
This is same as Newton’s second law of motion.
3) वेगः संयोगविशेषविरोधी।
Meaning: Action and reaction are equal and opposite.
This is same as Newton’s third law of motion.
यह मूर्तिमत्सु पञ्चसु द्रव्येषु क्या है –
a) solids (पृथ्वी – प्रथति विस्तारयति – चरणसंचारयोग्य। अस्याः पृथिव्याः स्वयम्भूमण्डलात् क्षरस्य केन्द्रात् प्रथनम् प्रसारणम् विस्तारः समभवत्। तस्मात् अस्याः नाम पृथिवीति। निरुक्तम्),
b) fluids (जल – धीयते अनेनेति – तस्य भावः अथवा अप् – तद्यदब्रवीदाभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यामि यदिदं किञ्चेति तस्मादापा अभवंस्तदपामप्त्वम् – गोपथब्राह्मणम् – पूर्व 1-2),
c) heat radiations (तेज – तेजयति तेज्यतेऽनेन वा),
d) (non-heat) motion (वायु – वातीति – वा गतिगन्धनयोः) and
e) mind (मनः – मन्यते बुद्ध्यतेऽनेनेति).
वेग चक्षुग्राह्य अथवा स्पर्शग्राह्य/संयोगज हो सकते हैं ।
आपेक्षिक तत्त्व का विश्लेषण आगे किया जायेगा ।
भावनासंज्ञकस्त्वात्मगुणो दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानहेतुर्भवति ज्ञानमद्दुःखादिविरोधी । पट्वाभ्यासादरप्रत्ययजः । पटुप्रत्ययापेक्षादात्ममनसो संयोगादाश्चर्येऽर्थे पटुः संस्कारातिशयो जायते । … विद्याशिल्पव्यायामादिष्वभ्यस्तमानेषु तस्मिन्नेवार्थे पूर्वपूर्वसंस्कारमपेक्षमाणादुत्तरोत्तरस्मात् प्रत्ययादात्ममनसोः संयोगात् संस्कारातिशयो जायते ।
प्रयत्नेन मनश्चक्षुषि स्थापयित्वाऽपूर्वमर्थं दिदृक्षमाणस्य विद्युत्सम्पातदर्शनवदादरप्रत्ययः, तमपेक्षमाणादात्ममनसोः संयोगात् संस्कारातिशयो जायते । …
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चितं करणमान्तरम्।
संशयो निश्चयो गर्बः स्मरणं विषया अमी।
स्थितिस्थापकस्तु स्पर्शवद्द्रव्येषु वर्तमानो घनावयवसन्निवेशविशिष्टेषु कालान्तरावस्थायिषु स्वाश्रयमन्यथाकृतं यथावस्थितं स्थपयति ।
नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयोऽस्यापि गुरुत्ववत् ।