शिक्षाप्रणाली के पाठ्यक्रम में प्रस्तावित परिवर्तन । – वासुदेव मिश्र
ॐ सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनां ।
उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं१ वि स॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ ऋग्वेदः १०/७१/४॥
कोई पर्यालोचना करने के पश्चात् भी उस वाक् का दर्शन नहीँ कर पाता । कोई श्रवण करने के पश्चात् भी श्रवणका फल नहीँ पाता । परन्तु वह स्वयं किसी के सम्मुख अपने को मुक्तरूप से प्रदर्शित करती है, जैसे कोई साध्वी स्त्री सुसज्जित हो कर अपने स्वामीके सम्मुख अपने शरीरको उन्मुक्त करदेती है ।
उपक्रम –
आधुनिक शिक्षाव्यवस्था द्विपद – केवल दो ही शाखा पर अवलम्वित है – कुछ सीमित तथ्यों को कण्ठस्थ करना तथा एक निर्दिष्ट समयपर उसका पुनरावृत्ति करना । इसमें शिक्षा का मूल उद्देश्य – विद्या को अर्थकरी करना – वाधित होता है । उपनिषद वाक्य है –
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः … ।
ज्ञान किसी प्रवचन अथवा वहुत पढना-लिखना, अथवा केवल अपने मेधा शक्ति से प्राप्त नहीँ किया जा सकता । अतः कोई किसीको शिक्षा दे नहीँ सकता । स्वयं को सिखना पडता है । उसके लिए निरन्तर प्रयास करना पडता है । शिक्षक के मुख से ग्रहण, स्मृति में उसका धारण तथा उसका निरन्तर पारायण करते रहने पर ही, जब भगवत्कृपा होगी, तब उसका रहस्य अपने आप उन्मेषित हो जाएगी ।
उपनिषद वाक्य है – आचार्यः पूर्वरूपम् ॥ अन्तेवास्युत्तररूपम् । विद्या सन्धिः । प्रवचनँसन्धानम् ।
गुरु एवं शिष्य एक मुद्रा के दो पार्श्व के समान है । विद्या ही दोनों को एक बन्घनमें रखती है । प्रवचन करने के प्रक्रिया से गुरु अपनेको समृद्ध करते हैं । । प्रवचन सुनने के माध्यम से मनन द्वारा शिष्य अपनेको समृद्ध करता हैं । दोनों का उद्देश्य एक है ।
शिष्यशब्द शि॒षॢँ वि॒शेष॑णे धातु से निष्पन्न हो सकता है । किसी वस्तुमें अन्वित होना तथा यावत्कालस्थायी होनेको विशेषण कहते हैँ । दोनोंमें से किसी एक रहनेसे उसे उपाधि कहते हैँ । जो विद्या जिसमें जन्मसे मातृपितृगुणसे अन्वित है, उसका विकास से उत्कर्षप्राप्ति होती है । द्वितीय पन्था कर्म द्वारा विकास है । यह विवर्त्त का एक भाग है । अतात्त्विक अन्यथाभावको विवर्त्त कहते हैँ । जब केन्द्रशक्ति बिना किसी के सहायतासे विवर्त्तित होता हो, तब उसे अवतार कहते हैँ । केन्द्रशक्ति शक्त्याश्रय होकर विवर्त्तित होनेसे, उसे विकास कहते हैँ । विद्यार्थी अपने जन्मजातज्ञान को गुरुके सहायतासे अपने कर्मके द्वारा विकास करता है ।
रहस्य-प्रयोग-उपसंहार के साथ ग्रहण होनेसे विद्या पूर्ण रूपसे फलप्रद होता है । ग्राह्य ज्ञेय है – जाननेयोग्य विषय है । ग्राहक ज्ञान है । इनका संयोग ग्रहण है । अप्राप्त वस्तु का प्राप्ति संयोग है (अप्राप्तयोषु या प्राप्तिः सैव संयोग ईरितः)। भूतोंका आधार्याधार सम्बन्धको प्राप्ति कहते हैं (आधार्याधार भूतानाम् – एकके आधारमें अन्यका आधेय रूपसे रहना, जैसे घटीके आधारमें जल आधेय, अज्ञानीके मन और स्मृतिके आधारमें शिक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान आधेय)। उससे ग्राह्य-ग्राहक भेदके कारण विकल्प सृष्टि होते हैं (ग्राह्य-ग्राहक रूपेण विकल्पं समुपाश्रिता – अवभासकत्वेन प्राप्ता सती भासयति । विकल्पनाय – भेद अवभासनाय)। इसका प्रक्रियाके विषयमें बृहदारण्यकोपनिषत् में कहा गया है “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्चेतावदरे खल्वमृतत्वम्”। अतः केवल शास्त्राध्ययनसे विषयका ग्रहण नहीं होता । उसका दर्शन, श्रवण, मनन तथा निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिए (आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च। त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम्। इत्यादि श्रुतौ)।
विषयश्चाधिकारी च ग्रन्थस्य च प्रयोजनम् ।
सम्बन्धश्च चतुर्थोऽस्तीत्यनुबन्धचतुष्टयम् ॥
विषयः कः फलं किं कः सम्बन्धः कोऽधिकारवान् ।
इत्याकाङ्क्षानिवृत्त्यर्थं चतुष्टयमुदीर्य्यते ॥
अनुबन्ध शब्द “अनु” उपसर्ग पूर्वक “बन्ध्” धातु में भावे “घञ्” प्रत्यय से निष्पन्न होता है । अनु उपसर्ग “पश्चात्, सादृश्य, लक्षण, वीप्सा, इत्थंभूताख्यान, भाग, आयाम, हीन, सहार्थ, एवं सन्निधान” अर्थ में व्यवहार होता है । “बन्ध्” धातु “बन्धँ सं॒यम॑ने” अथवा “ब॒न्धँ बन्ध॑ने” अर्थ में व्यवहार होता है । शिक्षा एवं शास्त्राध्ययन क्षेत्रमें अनुबन्धः शब्द वीप्सार्थे (यूगपद्व्याप्तुमिच्छा – एकसाथ सबकुछ पाने/सर्वत्रगमन की इच्छाको) संयमनकरना – पीछेसे बान्धकर रखनेका भाव तथा उसके लक्षणको दर्शाता है (अनुबन्ध्यते अनेनेति अनुबन्धः) । अतः किसी ग्रन्थमें रूची उत्पन्न करनेके अनिवार्यअङ्ग अथवा नियम अनुबन्ध कहलाता है । “चतुष्टयं वा इदं सर्वम्” – यह शाङ्ख्यायनब्राह्मणम् सिद्धान्त से इनके संख्या चार है । यह अनुबन्ध हैं – विषय (अभिधेय), प्रयोजन, सम्बन्ध (साध्य-साधन लक्षणः), अधिकारी । शिष्यशब्द शिषँ असर्वोपयो॒गे धातु से भी निष्पन्न हो सकता है । इसलिए सब विद्या सब के लिए उपयोगी नहीँ होता । अयोग्यपुरुषः नास्ति । कोई भी अयोग्य नहीँ है । परन्तु सबकी योग्यता एक जैसी नहीँ है । शिष्यको उसके योग्यता के अनुसार उपयुक्त शिक्षा देना ही विद्या का सार्थकता है ।
चित्तभूमी (mind or brain waves) के पञ्चावस्था है – क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र तथा समाधि । इनको आधुनिक विज्ञानमें alpha, beta, theta, delta waves and gamma coupling कहते हैँ । मन सर्वदा चञ्चल है । सम्यक् संसरणशील संसारमें मन सर्वदा एक वस्तुसे अन्य वस्तु केलिए प्रेरित होता रहता है । ऐसेमें अधीत विषयका ग्रहण (बोध) तथा ग्रहीत विषयको बुद्धिमें स्थिर रखना वहुत ही कष्टसाध्य है (शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतः वशीत्वम् – शास्त्र, राजा और नारी स्वभावतः किसी के वशमें नहीं रहते)। कठिन प्रयत्न द्वारा अधितविषय का सफल प्रयोगसे इनको वशमें करना पडता है । उसमें भी मात्राका ध्यान रखना चाहिये (मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनः – गीता–२/४)। मात्राधिक्य होनेसे उसका तात्कालिक उपसंहारका ज्ञान भी होना चाहिये । यह तभी सम्भब है, जब उस विद्या सरहस्य सम्यकरूपसे बुद्धिमें स्थित हो । वह तभी सम्भब है, जब उस विद्या जानने केलिए हमारे मनमें आकाङ्क्षा हो और अध्ययन के द्वारा उसका निराकरण कियागया हो ।
आकाङ्क्षा निवृत्ति तब होगी जब हमें ज्ञातव्य विषयका स्पष्ट ज्ञान हो तथा हमारे जीबनमें उसका प्रयोजन भी ज्ञात हो । विना प्रयोजन के कोइ कुछ नहीं करता (प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोपि न प्रवर्तते)। प्रयोजनमात्र ज्ञात होनेसे भी वह विद्या जानने केलिए हमारा प्रवृत्ति नहीं होगी । उदाहरण केलिए हमारे घरमें विद्युत (विषय) है । उसका प्रयोजन हमें ज्ञात है । समय समय पर उसमें कुछ समस्या होते रहते हैं । उसका निराकरण करने केलिए हमें इलेक्ट्रिसियन की आवश्यकता होती है । इसलिए उसका ज्ञान हमारे प्रयोजन सिद्धिसे सम्बन्ध रखता है, जो सब केलिए उपयोगी है । परन्तु किसी विद्या जानने के प्रति हमारा प्रवृत्ति तब होगी जब हमारे लिए वह विद्या सुलभ (कठिन नहीँ) तथा महान (अल्प नहीं) अर्थकरी होगी । सब लोगोंका इलेक्ट्रिसियन विद्या सिखनेके प्रति आग्रह नहीं होता । कारण पैसा देकर इलेक्ट्रिसियन लाना सुलभ हैं । हमारा प्रवृत्ति इलेक्ट्रिकल इञ्जिनियर वनना हैं – इलेक्ट्रिसियन नहीं (अल्प परिश्रम, अधिक आय)। यदि हमें बलपूर्वक अथवा बाध्य करके इलेक्ट्रिसियन विद्या सिखाया जाये, तो हम उस विद्या का पूर्ण रूपसे उपयोग नहीं करपायेंगे । परन्तु जो किसी कारणवश इलेक्ट्रिसियन को अपने जीविका का साधन वनाना चाहते हैं, केवल वही लोग उस विद्याको आग्रहके साथ सिखते हैं । उन्हीके क्षेत्रमें वह विद्या सम्पूर्ण चरितार्थ होता है । वही लोग उस विद्याके उपयुक्त अधिकारी है । यही अनुबन्ध चतुष्टय का मूलभूत सिद्धान्त है ।
विषय – जिससे जीव का कल्याण हो, ऐसे विषयों (विशेषतो भक्तिरिति) का नाम (अभिधेय) से शाब्दिक वर्णन ही विषय है (न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। अनुविद्धं इव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते॥ वाक्यपदीयम् १/१३१)। किसी पदार्थ का विस्तार होने पर यदि उसका स्वभाव अपरिवर्तित रहे, उसे उस पदार्थ का विवर्त (evolution) कहते हैं। यदि उस पदार्थ के धर्म में परिवर्तन आ जाये, तो उसे उस पदार्थ का विकार अथवा परिणाम (transformation) कहते हैं । विकार अपने लिङ्ग (परिमापक) के द्वारा इन्द्रियग्राह्य होते हैं (लिङ्गैन्द्रिये रूपग्राह्यः स विकार उदाहृतः)। प्राप्यकारिता इन्द्रियों का धर्म है । इन्द्रियवर्गों का व्युह (विशिष्ट रचना) पुरुषार्थ तन्त्र है । विशिष्ट भोग के लिये विशिष्ट रचना होता है (विशब्दो हि विशेषार्थः सिनोतेर्बन्ध उच्यते । विशेषेण सिनोतीति विषयोऽतो नियामकः)।
“अनन्ता वै वेदाः” (तैत्तिरीयब्राह्मणम् ३/१0/११/४) – वेद का ज्ञान अनन्त है । यहाँ अनन्ता और वेदाः दोनों शब्द वहुवचन में है । अतः वेत्ति तथा विन्दति रूप में लब्ध वेद असंख्य – अप्रमेय है, जिसे जानना ऋषियों के लिये भी सम्भव नहीं है (ऋषयोऽपि पदार्थानां नान्तं यान्ति पृथक्त्वतः)। इसलिए लक्षण (येन उद्दिष्टं वस्तु लक्षते – समानासमानजातीयव्यवच्छेदः) के परीक्षा (परित ईक्षा – ईक्षा पुनरीक्षणमवधारणं, निश्चयः) के द्वारा सिद्धान्त (सिद्धः अन्तो यस्मात् – पूर्वपक्ष निराकरणेन सिद्धपक्षस्थापनम्) प्राप्तकरते हैं । षट् पदार्थोंमें द्रव्य-गुण-कर्म के कार्यप्रमाण है – कार्यकारण सम्बन्धसे उत्पाद्य-आप्य-संस्कार्य-विकार्य रूपी भेदके द्वारा लक्षितहोते हैं । परन्तु सामान्य-विशेष-समवाय के कार्यप्रमाण नहीं होते – यह क्रमशः अनुवृत्ति बुद्धि, व्यावृत्ति बुद्धि, तथा इहेति बुद्धिके द्वारा लक्षितहोते हैं । अतः विषय का बोधगम्यता शिक्षा का प्रथम सोपान है ।
कोइ किसी को शिक्षित वना नहीं सकता (नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् – कठ/मुण्डकोपनिषत्)। शिक्षा विद्या ग्रहण है – उसे स्वयंको ग्रहण करना पडता है । मानव स्वयं ही अपना गुरु हैं । वह प्रत्यक्ष अनुभव और उससे किया हुआ अनुमानके द्वारा स्वयं केलिए कल्याणकारक ज्ञान और कर्म जान सकता हैं (आत्मनो गुरूरात्मैव पुरुषस्य विशेषत:। यत्प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् श्रेयोऽसावनुविन्दते – उद्धवगीता)। अतः शिक्षक और शिक्षार्थी पूर्वरूप तथा उत्तर रूप जैसा एक मूद्राके दो पार्श्व है । दोनों अध्ययन केलिए विद्यासे जुडे हुए । शिक्षक शिक्षा देते हुये विद्या ग्रहण करता है – नये नये विचार उसके मन में आते हैं । शिक्षार्थी शिक्षाग्रहण करतेहुये विद्याग्रहण करता है । शिक्षा अर्थकरी होनी चाहिये । जिससे हम अपनी प्रयोजनीय अथवा इप्सित वस्तुओंको सहज ही प्राप्त कर सकें, उस प्रक्रिया का मार्गदर्शन ही शिक्षादान हैं ।
प्रश्न उठता है कि अनुबन्ध चतुष्टय शास्त्रोंसे सम्बन्ध रखते हैं । आधुनिक शिक्षा व्यवस्थामें इनका प्रासङ्गिकता क्या है । इसका उत्तर जानने केलिए “शास्त्र” क्या है यह जानना चाहिये। “शास्त्र” शब्द “शास् (शासुँ) अनु॑शिष्टौ” से निष्पन्न है, जिसका अर्थ “अनुशासन अथवा उपदेश करना” है । शास्त्र की परिभाषा है – “शिष्यतेऽनुशिष्यतेऽपूर्वोऽर्थो बोध्यते अनेनेति शास्त्रम्” । अर्थात् जिसके द्वारा अनुशासन किया जाता है, अर्थात् अपूर्व अर्थको कह कर उसके पश्चात् (अनु) उसका प्रतिपाद्य अर्थका बोध कराया जाता है, उसे शास्त्र कहते हैं । अथवा “शिष्यन्ते धर्माः अनेनेति शास्त्रम्”। अर्थात् जिसके द्वारा मनुष्यका अनुशासन अथवा किसी भी विषय, विद्या, विज्ञान अथवा कला के मौलिक सिद्धान्तोंसे लेकर विषय-वस्तुके सभी आयामोंका सुनियोजित अथवा सूत्रबद्ध निरूपण किया जाता है, वह शास्त्र है । प्रत्यक्ष और अनुमान से जो समझ में न आये, ऐसे विषयोंको प्रकाश करनेके कारण वेद शास्त्र कहलाता है । उसीके उपजीवी स्मृति-पुराणादि तथा अन्य समस्त ग्रन्थ वेदके भाष्य होने से (वेद सर्वविषय है। अन्य ग्रन्थ उसका आंशिक विषयका शिक्षा देते हैं । अतः वह भी शास्त्र हैं । महाभारत (शान्तिपर्व/अध्याय-१४१) में कहागया है कि –
शास्ति यत्साधनोपायं चतुर्वर्गस्य निर्मलम् ।
तथैव बाधनापायमेषा शास्त्रस्य शास्त्रता ॥
अर्थात् चारों पुरुषार्थों की सिद्धि का निर्मलउपाय और उनकी सफलतामें बाधक तत्वोंके निवारणका उपाय दर्शानेसे शास्त्रों की शास्त्रता सिद्ध होती है। अतः अधिकांश आधुनिक पुस्तक शास्त्र पद वाच्य है। वेद भिन्न अन्य शास्त्र एकदेशीय (यथा चुम्बकीय, वैद्युतिक, महाजागतिक, आणव आदि) अथवा वहुदेशीय (यथा पदार्थविज्ञान, उद्भिदविज्ञान आदि) हो सकते हैं। अतः अनुबन्ध चतुष्टय का प्रासङ्गिकता आज भी है।
प्रयोजन – प्राणियों के समस्तप्रकार के व्यवहार का मूल प्रयोजन है (सर्वे वै प्राणभूतां व्यवहाराः प्रयोजनाश्रयाः)। जिसके प्राप्त होनेपर करना, जानना और पाना/त्यागना (प्राप्ति-ज्ञान-कष्ट) बाकी नहीं रहता, उसकी प्राप्ति/परिहार कराना प्रयोजन है (यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत्प्रयोजनम्)। प्राणके तारतम्य से विषय (अर्थ) का अपरिसंख्येय भेद हो जाते है। उसमेंसे हमारे सुखप्राप्ति एवं दुःखके परिहारके अघिगमोपाय सीमित है (अनुकूलवेदनीय सुख, प्रतिकूलवेदनीय दुःख – जो हमारे मनके अनुरूप हो, वह सुख तथा जो हमारे मनके विपरीत हो, वह दुःख है)। वह धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष भेदसे चतुःसंस्थ नहीं – चतुर्विध है (जिनका परष्पर पृथक् स्थिति रहे उसे संस्था और जो परष्पर अनुप्रविष्ट रहे उसे विधा कहते हैं। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष क्रिया-कारक परम्परा से परष्पर में अनुप्रविष्ट है – धर्मपूर्वक अर्थ/काम ही पुण्य/मोक्ष के दिशा में अग्रसर कराता है। उसके विपरीत पाप/बन्ध है)।
ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता ।
विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा ॥
सत्त्वापत्तिश्चतुर्थीस्यात्ततोऽसंसक्ति नामिका ।
पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी तूर्यगा स्मृता ॥
अज्ञान की सात भूमिकाएँ है । उसीप्रकार ज्ञान की भी सात भूमिकाएँ है । गुणों की विचित्रता से इनके असंख्य भेद हो जाते हैं । मैं अपने तथा अपने उपर आश्रितजनोंके प्रयोजनपूर्ति केलिए अन्यके उपर निर्भर न करुँ, इसलिये मेरे स्वभाव और योग्यताके अनुरूप ज्ञान प्राप्त करुँ – तृतीय पुरुषार्थ अर्थके विषयमें जब यह भावना उपस्थिति होती है, तब उसे शुभेच्छा कहते हैं । यही उपस्थित होनेपर हम अपना प्रयोजनको जान पाते हैं तथा उस ज्ञान प्राप्तिके दिशामें अग्रसर होते हैं । जब अधीत विषयपर विचारणा करते हैं, तो हमारा मन उस विषयपर एकाग्र (तद्बुद्धि, तन्निष्ठ) हो जाता है । तभी हम कल्याणकरी प्रकृष्टज्ञानके दिशामें अग्रसर होते हैं (तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः)।
सम्बन्ध – विषयके साथ ग्रन्थका अथवा शिक्षासंस्थानका परस्पर प्रतिपाद्य-प्रतिपादक अथवा साध्य-साधन सम्बन्ध रहना चाहिये । जिस विषयको समझाया जाता है, वह विषय प्रतिपाद्य कहलाता है और जो समझानेका माध्यम होता है, वह प्रतिपादक कहलाता है । जब हमें विषय तथा उसका प्रयोजन ज्ञात हो, तब हम उस प्रयोजनसिद्धिके प्रतिपादक स्रोतका खोज करते हैं (आत्मा/ज्ञान जन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। कृतिजन्या भवेच्चेष्टा तज्जनैव क्रिया भवेत् ॥ किसी प्रयोजनका ज्ञान होनेसे उसका पूर्ति केलिए इच्छा जात होता है । उस इच्छाके कारण साध्य-साधन ज्ञान होने पर हम उसी प्रकार चेष्टा करते हैं । उस चेष्टाका परिणाम क्रियाके रूपमें प्रकट होता है)। जहँ पर वह प्रतिपाद्य-प्रतिपादक अथवा साध्य-साधन सम्बन्ध हमें मिलजाये, हम उस ज्ञान प्राप्त करने केलिए आग्रही होते हैं और उसीके खोज करते हैं (एष ह वै तत्सर्वं वक्ष्यतीति – प्रश्नोपनिषत् १/१)। प्रयोजनीय विषयका चयन स्वयंको अपने रूचीके अनुसार करना पडता है – माता/पिता अथवा गुरुजनोंके कहने से नहीं । इसका कारण स्वभाव है, जिसमें माता-पिता तथा अन्य पितृपुरुषोंके सहः (DNA) का योगदान है ।
अधिकारी – ज्ञान विद्या का परिणाम है । अविद्या आवरित ज्ञानके कारण हम स्वभावसे प्रेरित हो कर, अथवा अपने सामर्थ्यज्ञानके कारण, प्रयोजनसिद्धिके प्रतिपादकज्ञानका खोज हम भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं । शुक्राचार्यका कथन है कि कोई अक्षर ऐसा नही है जिसे मन्त्रमें व्यवहार न किया जा सके, कोई ऐसा मूल (जड़) नही है, जिससे कोई औषधिय गुण न हो । कोई भी मनुष्य अयोग्य नही होता । परन्तु उनको उपयुक्त का में लगानेवाले ही दुर्लभ हैं (अमन्त्रम् अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलम् अनौषधम्। अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:)। सबका शारीरिक तथा मानसिक योग्यता सब क्षेत्रमें एक जैसे नहीं होते । यह योग्यता जन्मगत और स्वाभाविक है । कौशलका शिक्षा दिया जा सकता है । परन्तु योग्यताका नहीं (Talent is inborn, though skill can be developed)। अतः सब शिक्षा सब केलिए प्रशस्त नहीं है । शारीरिक रूपसे पङ्गु व्यक्तिको सैनिक शिक्षा नहीं दी जा सकती । स्वभाव से जो प्रकृतिप्रेमी है, उसे यान्त्रिकी अथवा वैद्यीकीमें स्पृहा नहीं रहता। आदि ।
सामान्य तथा विशेष भेदसे शिक्षाका प्राथमिक एवं उच्चशिक्षा – यह दो विभाग है । जो विद्या सब के जीवनमें प्रत्येक क्षेत्रमें उपयोगमें आनेवाली है, वह सामान्य है । उसमें लिखन/पठन, गणन, ऐतिह्य, संस्कार, नीतिबोध, सामाजिक मूल्यबोध, आदि आते हैं । जो अर्थोपार्जनमें सहायक हो, वह विशिष्ट कला उच्चशिक्षा है । केवल अधिकारी विशेष (योग्य प्रार्थी) को दियाजाने से वह विद्या सफल होता है । यह केवल छात्र/छात्राओंके विशेष योग्यताका विवेचनके पश्चात् निर्धारित किया जाना चाहिये । परन्तु आधुनिक व्यवस्थामें एक सामान्य चयन प्रक्रियामें सबका आङ्कलन कियाजाता है । उससे छात्र/छात्राओंके स्मृतिशक्तिका अनुमान तो होता है, परन्तु उनका बौधिक विकाश तथा अधिकारीत्व (potential for development in a subject) अज्ञात रहता है । अतः अनेक उच्चशिक्षा संस्थानोंमें आत्महत्याका प्रवणता देखनेको मिलता है । उच्चशिक्षा संस्थानों में विशृङ्खलाका यह एक कारण भी है ।
शिक्षाका तृतीयविभाग किसी विषयमें विस्तृत ज्ञान आहरण सम्बन्धी (research oriented subjects like M.Phil, PhD, D. Lit, D.Sc., etc.) आत्मविकाश है । उसकेलिए केवल वही उपयुक्त है, जो ज्ञानपिपासु है और जिसे नित्य अर्थागम की चिन्ता न हो। इस केलिए उनको छात्रवृत्ति दियाजाता है, जो उचित है । परन्तु कुछलोग इसको दीर्घसमय पर्यन्त अर्थागमका साधन वनालेते हैं । विशेषरूपसे निम्न आय तथा अल्पसंख्यक वर्गको उचित शिक्षादानके स्थानपर उन्हे पढने केलिए प्रोत्साहित करने केलिए छात्रवृत्तिदेना केवल अर्थव्यय है, जहाँ कोई हितकारक फल नहीं दिखता। शिवोऽपि न दृष्टः शवोऽपि न दग्धः। जिस विषयमें विस्तृत ज्ञान आहरण करना हो, उस विषयका समाजमें प्रयोजन क्या और कितना है, तथा उसके लिए व्यय कियागया समय और अर्थके अनुपातसे उसके फलके उपयोगिताका भी विचार किया जाना चाहिए ।
अन्तमें कुछ उदाहरण के साथ विषय का उपसंहार करते हैं । प्राणवायुका कार्य प्रयत्न (चेष्टा) व्यतिरेके सृष्टि-स्थिति-विनाश असम्भव है । अतः प्राणस्वरूप ऋषि ही (प्राणा वा ऽऋषयः – शतपथब्राह्मणम् ६/१/१) वेद तथा सर्वविषयका प्रथम प्रतिपाद्य है । इस चेष्टा का फल देवता है । फल (प्रयोजन) दीप्तियुक्त (दिवति भासति इति देवम्) होकर दृश्यमान नहीं होने से उस विषय में प्रवृत्ति नहीं होगी । फलमें वैविध्य रहने से भी तन्मध्यवर्ती सूक्ष्मप्रकाश उसके देवत्व का परिचायक है । देवता के साथ ऋषि का सम्बन्ध छन्द से निर्धारित होता है । सत्त्वबहुल देवत्व को तमबहुल पापत्व अथवा असुरत्व सर्वदा आवरित करके नियन्त्रित करनेका प्रयास करता है । उससे मुक्ति पाने केलिए देवताओं को छन्दोबन्धभावसे ऋषिप्राणके सहायतासे चेष्टा करना पडता है । यही छन्दका छन्दत्व है । आधुनिक विज्ञानमें यह प्रक्रिया बहु परीक्षित है । एक उपग्रह, ग्रह के अथवा एक ग्रह, एक तारका के सम्मुखीन (निकटतम) होनेसे उनके घुर्णनक्रियामें परिवर्तन होता है । यह प्रक्रिया निहारीकासे लेकर अणुपर्यन्त सब पिण्डमें प्रत्यक्ष है । इस प्रक्रिया प्रवहादि सप्त वातस्कन्ध रूपसे सप्तछन्दका द्योतक है । प्रकृतिके सर्वहुतयज्ञके अनुकरणसे “यद्देवाः अकुर्वन् तत् करवाम”, यह शतपथब्राह्मणम् सिद्धान्तसे जो यज्ञ कियाजाता है, वहाँ यज्ञका अर्थ सङ्गतिकरण है (य॒जँ॑ देवपूजासङ्गतिकरणदा॒नेषु॑)। अतः देवयजनबिद्या पारङ्गत ऋत्विक ही मन्त्रका विनियोग कर सकता है – वही इसका अधिकारी है । इसलिए प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और विनियोग दर्शाया गया है । उनको जानेविना मन्त्रका अर्थ करना अनर्थ है ।
ब्रह्मसूत्रम् का प्रथम सूत्र “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा”, मीमांसा का प्रथम सूत्र “अथातो धर्म जिज्ञासा”, कणादसूत्र का प्रथम सूत्र “अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः” आदि में विषय ब्रह्म/धर्म है, जिज्ञासा/व्याख्यास्यामः प्रयोजन है, अतो सम्बन्ध है तथा अथ अधिकारी को निर्देश करता है । उसी विषय (ब्रह्म/धर्म) में पढने के अनन्तर (अथ – अधिकारी), जो अधिक जानने की इच्छा होती है (जिज्ञासा – प्रयोजन), वह इस शास्त्र में विचार किया गया है (सम्बन्ध) । महाभाष्य के “अथ शब्दानुशासनम्” में शब्द विषय है, संस्कृत पढनेके अनन्तर (अथ – अधिकारी), भाषाको परिमार्जित करना प्रयोजन है, जो इस शास्त्रको पढनेके पश्चात् (सम्बन्ध) होगा । अन्य शास्त्रोंके विषयमें भी वैसे ही है ।
शान्तातीतसमहिष्याः वाच्यवाचकशक्तये ।
शब्दब्रह्मेतिसंज्ञितः गुरुणां गुरवे नमः ॥