शिक्षा (लेख का द्वितीय संस्करण)

शिक्षा ।

श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा।

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत नामधेयं दधानाः।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥ (ऋक् १०/७१/१) ॥

ॐ शीक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः स्वरः । मात्रा बलम् । साम सन्तानः । इत्युक्तः शीक्षाध्यायः ॥ तैत्तिरीयोपनिषदत् – शिक्षावल्ली १ ॥

वेदाङ्गों में उच्चारणपद्धति का ज्ञान सम्बन्धी उपदेश को शिक्षा कहते हैँ (शिक्ष्यते ज्ञायते साक्षाद्वर्णाद्योच्चारणं यया)। अ, क, आदि वर्ण । त्रिषष्ठी (६३) अथवा चतुःषष्ठी (६४) वर्ण (त्रिषष्टिश्चतुष्षष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः-पाणिनीय शिक्षा) । उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि तथा सामवेदके जात्य, क्षैप्र, तैरव्यञ्जन, तिरोविराम आदि स्वर । ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत – अर्द्ध, पूर्ण आदि उच्चारणकाल मात्रा । बल अर्थात वर्णों के उच्चारण में होनेवाली वाह्य तथा आभ्यन्तर प्रयत्न एवं कण्ठ, तालु आदि अष्टस्थान । सम एवं सुस्वर नातिद्रुत नातिबिलम्बित स्पष्ट उच्चारण – वैषम्य विवर्जित समता – वर्णानां मध्यमवृत्योच्चारणम् । संहिता पाठ में सन्धिनियम का पालन – यह शिक्षा का विषय है ।

शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य – शिक्षा वेद का घ्राणस्थानीय है, जिससे मेध्य-अमेध्य – शुद्धाशुद्ध का ज्ञान होता है । स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षा । स्वर-वर्ण आदि का उच्चारण प्रकार जिससे शिक्षा दी जाती है, वह शिक्षा वेदाङ्ग है ।

अध्ययन (अधि+इङ्) का ग्रहण, धारण तथा ब्रह्मयज्ञ के भेद से तीन विभाग किया गया है । गुरुमुख से उच्चारित शब्द का ग्रहण (कण्ठस्थ करना) और स्मृति में उसका धारण (याद रखना) करने के पश्चात उसका पारायण (मनन करना) को ब्रह्मयज्ञ कहते हैँ । व्यासशिक्षा, लक्ष्मीशिक्षा, भारद्वाजीशिक्षा, आरण्यशिक्षा, शम्भुशिक्षा, आपिशलीशिक्षा, पाणिनीयशिक्षा, कौहली शिक्षा, वासिष्ठीशिक्षा – यह नौ शिक्षाग्रन्थ प्रसिद्ध है । सामवेदके लिए नारदीया शिक्षा प्रशस्त है ।

सर्वप्रथम समस्त वस्तुओंके केवल नाम ही दियेगये थे । गुहाके भीतर वाक् के जो ३पद थे, उनको उसीप्रकार वैखरीवाक् (उच्चरित और लिखित) में व्यक्तकिया । अव्यक्त वाणीको व्यक्तरूपमें यथातथ्य उपसर्ग-प्रत्यय, कारक, विराम चिह्नों (पाप-विद्ध) आदि द्वारा वाक्यमें प्रकटकरनेसे वह शाश्वत होती है – शब्द वेद दोनों का सृष्टि अव्यक्त से व्यक्त का निर्माण है । इनकी प्रक्रिया ईशावास्योपनिषत् में है –


स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम् ।
क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑यं॒भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न्व्य॑द धाच्छाश्व॒ती भ्यः॒ समा॑भ्यः ॥८॥ ८


कवि = निर्माता-कणों या शब्दों को कवल में बन्द करता है । मनीषी-विचारक, मन के सङ्कल्प से निर्माण करता है । परिभू-जैसे भूमि को घेर रखा है ।

ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः । (ऋक्तन्त्र)।
महेश्वरसे ज्ञानप्राप्तकर ब्रह्माने इसका ज्ञान वृहस्पतिको दिया, वृहस्पतिने इन्द्रको, इन्द्रने भरद्वाजको और भरद्वाजने ब्राह्मणोंको इसका उपदेश दिया । कथित है कि –
येनाक्षर समाम्नायं अधिगम्य महेश्वरात् ।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नम्ः॥ (पाणिनीय शिक्षा, अन्तिम श्लोक) ॥

देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत (तैत्तिरीय संहिता ५/२/८/३)
ब्रह्माद्वारा इसप्रकार लेखनका आरम्भ हुआ –
नाकरिष्यद् यदि ब्रह्मा लिखितम् चक्षुरुत्तमम् । तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभा गतिः॥ (नारद स्मृति) ॥

षण्मासिके तु समये भ्रान्तिः सञ्जायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान् यतः परां ॥ (बृहस्पति-आह्निक तत्त्व) ॥
ब्रह्माद्वारा अधिकृत बृहस्पतिने प्रति पद के लिये अलगचिह्न बनाये थे ।

वर्णों के संकेत से १४सूत्र महेश्वर ने बनाये (१४ माहेश्वरसूत्र) जिनसे क्रमशः व्याकरण परम्परा चली । यह सूत्र है –
१. अ इ उ ण्। २. ॠ ॡ क्। ३. ए ओ ङ्। ४. ऐ औ च्। ५. ह य व र ट्। ६. ल ण् ७. ञ म ङ ण न म्। ८. झ भ ञ्। ९. घ ढ ध ष्। १०. ज ब ग ड द श्। ११. ख फ छ ठ थ च ट त व्। १२. क प य्। १३. श ष स र्। १४. ह ल्।

प्रत्याहारका अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन । अष्टाध्यायीके प्रथमअध्यायके प्रथमपाद के ७१ वें सूत्र “आदिरन्त्येन सहेता” (१-१-७१) सूत्रद्वारा प्रत्याहार बनानेकी विधिका पाणिनिने निर्देश किया है । (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्णके साथ (सह) मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदिवर्ण (पहला) एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिमवर्णके पूर्व आए हुए वर्णोंका समष्टिरूपमें बोधकराता है । जैसे अच् – अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ। उसीप्रकार हल् प्रत्याहारकी सिद्धि ५वें सूत्र हयवरट् के आदिअक्षर “ह” को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है । फलतः हल् – ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द,ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह ।

स्वरा विंशतिरेकश्च स्पर्शानां पञ्चविंशतिः । यादयश्च स्मृता ह्यष्टौ चत्वारश्च यमाः स्मृताः ॥ (पाणिनीयशिक्षा ४) ॥

शुक्लयजुःप्रातिशाख्यम् । अष्टमोऽध्यायः ।
अ इति आ इति आ३ इति । इ इति ई इति ई३ इति । उ इति ऊ इति ऊ३ इति । ऋ इति ॠ इति ॠ३ इति । लृ इति लॄ इति लॄ३ इति । अथ सन्ध्यक्षराणि । ए इति ए३ इति । ओ इति ओ३ इति । ऐ इति ऐ३ इति । औ इति औ३ इति । इति स्वराः ।

अथ व्यञ्जनानि ।
किति खिति गिति घिति ङिति कवर्गः । चिति छिति जिति झिति ञिति चवर्गः । टिति ठिति डिति ढिति णिति टवर्गः । तिति थिति दिति धिति निति तवर्गः । पिति फिति बिति भिति मिति पवर्गः । इति स्पर्शाः २०
अथान्तःस्थाः । यिति रिति लिति विति ।
अथोष्माणः । शिति षिति सिति हिति ।
अथायोगवाहाः । अः इति विसर्जनीयः । ᳲक इति जिह्वामूलीयः । ᳲप इत्युपध्मानीयः । अं इत्त्यनुस्वारः । हुँ इति नासिक्यः । कुँ खुँ गुँ घुँ इति यमाः ।
एते पञ्चषष्टिवर्णाः ब्रह्मराशिरात्मा वाचः । यत्किञ्चिद्वाङ्मयं लोके सर्वमत्र प्रयुज्यते । तत्समुदायोऽक्षरम् वर्णो वा । अक्षरसमुदायः पदम् ।

शम्भुशिक्षा में कहा गया है “मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् । मारुतस्तूरसि चरन्मन्द्रं जनयति स्वरम्”। मन शरीर के ऊष्मा को मूलाधार से प्रेरित करता है। वह ऊष्मा वायु को प्रेरित करता है । वह वायु नाभि, हृत्, होते हुये कण्ठ के स्वरतन्त्रियों को आन्दोलित करते हुए जब मुख से निर्गत होता है, उसे स्वर कहते हैं । अ से वर्णमाला का आरम्भ है और क्ष से शेष है । मध्य का वर्ण अ की गतिशीलता के कारण आगन्तु है । यही गतिशीलता को र द्वारा द्योतित किया जाता है । इसलिये वर्णप्रपञ्च के अङ्ग को अक्षर कहते हैं । अ ही उपक्रम है । अ ही उपसंहार है । अ ही हिङ्कार है । अ ही निधन है । इसलिये “वागित्येकमक्षरम्” कहा गया है । पाणिनि का अन्तिमसूत्र “अ-अ” इसी विद्या का प्रतिपादन करता है ।

प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण मूलाधारादि सात चक्रों में से एक या अधिक चक्रों को प्रभावित करते है । जैसे –
मूलाधार चक्र अकार स्वर एवं क वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
स्वाधिष्ठान चक्र इ तथा च वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
मणिपूरक चक्र ऋ तथा ट वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
अनाहत चक्र लृ तथा त वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
विशुद्धि चक्र उ तथा प वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
ईषत् स्पृष्ट वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को क्रियाशील करता है ।
ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को क्रियाशील करता है ।

विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है । अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है । जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं वे केवल विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं । उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भँवरे की तरह गुँजन करना होता है । अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है । अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा, उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा ।

बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच । (पातञ्जल-व्याकरण महाभाष्य १/१/१)
तथा च बृहस्पतः-प्रतिपदं अशक्यत्वात् लक्षणस्यापि अव्यवस्थितत्वात् तत्रापि स्खलित दर्शनात् अनवस्था प्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधिः व्याकरणमिति औशनसा इति। (न्याय मञ्जरी)। इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः। पाणिन्यमरजैनेन्द्रा भवन्त्यष्टौ हि शाब्दिकाः

प्रतिशब्द के अध्ययन को शब्दपारायण कहते थे । पूरा जीवन पढ़ने पर भी से समझना सम्भव नहीं था । अतः शुक्र (उशना) ने इसे मारणान्तक व्याधि कहा । इसमें सुधार केलिये इन्द्रने ध्वनिविज्ञानके आचार्य मरुत् की सहायतासे शब्दोंको अक्षरों और वर्णोंमें बाँटा तथा वर्णोंको उच्चारण स्थानके आधारपर वर्गीकृत किया (व्याकरोत्) । उसीको व्याकरण कहते हैँ ।

वाक् वै पराची अव्याकृता अवदत् । ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्। इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति । … तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत् । तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति। (तैत्तिरीय संहिता ६/४/७)। तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति-प्रत्यय विभागं सर्वत्राकरोत् – सायण भाष्य ।
स (इन्द्रो) वाचैव व्यवर्तयद् (मैत्रायणी संहिता ४/५/८)।
इसमें क से ह तक ३३ व्यञ्जन सौरमण्डल के ३३ भागों के प्राण रूप ३३ देवों के चिह्न हैं । १६ स्वर मिलाने पर ४९ वर्ण ४९ मरुतों के चिह्न हैं जो पूरी आकाशगङ्गा के क्षेत्र हैं । चिह्न रूप से देवों का नगर होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया ।