The science of Swarg – वैदिक देव स्वर्गों का विज्ञान

ईशोपनिषद विज्ञान भाष्य भाग , पण्डित मोतीलाल शर्म्मा

Vaidika science behind the concept of Swarga (swarg).

सप्त वै देवस्वर्गाः” के अनुसार देवस्वर्ग सात भागों में विभक्त हैं। इन सातों देवस्वर्गों की प्रतिष्ठा सूर्य ही है, अतएव सूर्य के लिए- “मध्ये ह संवत्सरस्य स्वर्गो लोकः” (शत. ६ |७|४| ११ ), “स्वर्गो वै लोकः सूर्यो ज्योतिरुत्तमम् ” ( यजुःसं. २०।२१ – शत. १२।६।२६ ) इत्यादि कहा जाता है । इन सात देववर्गों के अतिरिक्त तीन विष्टपस्वर्ग और हैं । यह तीनों क्रमशः ब्रह्मविष्टप, विष्णुविष्टप, इन्द्रविष्टप नामों से प्रसिद्ध हैं। तीनों की समष्टि ‘त्रिविष्टिपस्वर्ग‘ है । पृथ्वी के १७ वें अहर्गण से आरम्भ कर २५ वें अहर्गरण तक जो एक प्राकृतिक यज्ञ होरहा है, वही नवाहयज्ञ (अहर्गण १७-१८-१९-२०-२१-२२-२३-२४-२५ अर्थात् क्रमशः ९ – इन महर्गणों की समष्टिरूप) नाम से प्रसिद्ध है। इस नवाहयज्ञ के केन्द्र में ( २१ वें अहर्गण में) नवाहयज्ञाधिष्ठाता सूर्य प्रतिष्ठित है ।

पृथिवी के ३३ अहर्गणों में से किस अहर्गरण पर सूर्य प्रतिष्ठित है ?

इस प्रश्न का समाधान करते हुए निम्नलिखित श्रौत वचन हमारे सामनें आते हैं –

१ – “एकविंशो वै स्वर्गो लोकः” (शत॰ १०।५।४।६)

२ – “एकविंशो वै इतः स्वर्गो लोकः” (तै० ब्रा० ३।१२।५।७)

–“एष एवकविंशो य एष (सूर्यः) तपति” (शत० ५/५/३/४)।

संवत्सरात्मक सूर्य की प्रतिष्ठा यही नवाहयज्ञ है । १७ तक पृथिवी का अपना प्राण है, १७ से २५ तक सौर संवत्सर का साम्राज्य है, इसी आधार पर “नवाहो वै संवत्सरस्य प्रतिमा’ ( षड्विं. ब्रा. ३।१२।) यह कहा जाता है । ४ अहर्गण सूर्य से नीचे हैं, एवं ४ अहर्गण सूर्य से ऊपर हैं । इन दोनों चतुष्टोमों की प्रतिष्ठा एकविंशस्तोमात्मक सूर्य ही है “एकविंशो वै चतुष्टोमः स्तोमानां परमः” (कौ० ब्रा० ११।६) “प्रतिष्ठा वा एकविंशः स्तोमानाम्” (तां० ब्रा० ३।७।२ ) । इन में १७ वां स्तोम ब्रह्मविष्टप कहलाता है। यहां तक पार्थिव अग्निप्रजापति की प्रधानता रहती है। वही सप्तदशस्तोमस्थ अग्नि-‘प्रजापतिः सप्तदशः (ऐ० ब्रा० ८/४) के अनुसार प्रजापति कहलाता है। यही अग्नि ‘आहवनीय‘ नाम से प्रसिद्ध है – ( देखिए ऐ० ब्रा० ५।२४-२६) । सप्तदशस्तोमस्थ इस आहवनीय अग्नि में सोम की आहुति होती है । इस आहुति से यह अग्नि प्रज्वलित होकर २१ एकविंश स्तोम तक व्याप्त होजाता है । इसी सोमाहुति के प्रभाव से पार्थिव यज्ञ की एकविंश तक व्याप्ति मानी जाती है । इस यज्ञात्मक विष्णु के त्रिवृत् (९), पञ्चदश (१५), एकविंश (२१) यह तीन विक्रम हैं । इन्हीं तीनों विक्रमों से (आक्रमणों से ) वामनविष्णु ९-१५-२१ रूप पृथिवी-अन्तरिक्ष-द्यौ इन तीनो लोकों में व्याप्त हो जाते हैं । २१ पर विष्णु की व्याप्ति समान (समाप्त?) है । यही २१ वां स्थान ‘विष्णुविष्टप‘ कहलाता है – “तान् विष्णुरेकविंशेन स्तोमेनाप्नोत्” ( तै० ब्रा० – २।७।१४।२ ) । इसी विष्णुविष्ठप को ब्रध्नस्यविष्टप् स्वाराज्ययज्ञ आदि नामों से भी व्यवहृत किया जाता है-( देखिए तै० ब्रा० ३/८/१०/३) | यही स्वर्ग-नाकस्वर्ग नाम से भी प्रसिद्ध है । २१ से २५ तक इन्द्र विद्युत् का साम्राज्य है । इसी को सौम्यविद्युत् कहा जाता है । यही सौम्यविद्युत् उपनिषदों में ‘अमानवपुरुष‘ नाम से प्रसिद्ध है । यही तीसरा इन्द्रविष्टप है। दूसरे शब्दों में यों समझिए कि २५ से २१ तक इन्द्र की प्रधानता है, २१ से १७ तक विष्णु की प्रधानता है, एवं १७ से १ तक पार्थिव ब्रह्मा की प्रधानता है । पार्थिव ब्रह्मा की मूलप्रतिष्ठा १७ वां स्तोम है, विष्णु की मूलप्रतिष्ठा २१ वां स्तोम है, एवं सौम्यविद्युत्रूप इन्द्र की प्रतिष्ठा पञ्चविंशस्तोम है । इस प्रकार १७ से २५ तक के स्तोमों में से – १७-२१-२५ तीन तो विष्टपस्वर्गों में समाविष्ट हो जाते हैं ।

शेष रह जाते हैं – १८-१९-२०-२२-२३-२४ यह ६ स्तोम । इन के साथ में २१ वे का सम्बन्ध माना जाता है । यह २१ वां भिन्न है, विष्णुविष्टप् वाला २१वां मिन्न है । इस मिन्नता का कारण अग्नि और विष्णु है । १८ से २४ तक स्वर्ग्याग्नि नाम से प्रसिद्ध नाचिकेताग्नि का साम्राज्य है । सुतरां मध्यपतित २१ वें स्तोम में भी नाचिकेताग्नि की सत्ता सिद्ध होजाती है । इस नाचिकेताग्नि के सम्बन्ध से २१ वाँ अहर्गण देवस्वर्ग कोटि में प्रविष्ट है। उधर २१ पर विष्णु का भी प्रभुत्व है । विष्णु के सम्बन्ध से वह २१ वां विष्टप स्वर्गकोटि में भी प्रविष्ट है । इस प्रकार २१ के दो स्वरूप हो जाते हैं । यही सात देवस्वर्गों की मूलप्रतिष्ठा है । १८-१९-२० यह तीन देवस्वर्ग २१ से इधर हैं, २२-२३-२४ यह तीन दैवस्वर्ग २१ से उधर हैं, स्वयं २१ वां सातवाँ देवस्वर्ग है । यही तीन-तीन स्तोम सामविद्या के के अनुसार स्वरसाम नाम से प्रसिद्ध हैं।

इन्हीं के कारण सूर्यग्रहण होता है, जैसा कि अन्य ग्रंथों में स्पष्ट है । यही सप्त स्वर्गसमष्टि ‘त्रिणाचिकेत स्वर्ग’ नाम से प्रसिद्ध है । यह सातों स्वर्ग क्रमश: अपोदक, ऋतधामा, अपराजित, नाक, अधिद्यौ, प्रद्यौ, रोचन, इन नामों से प्रसिद्ध हैं । १८ से २४ तक व्याप्त रहने वाले एक ही अग्नि को सात भिन्न भिन्न अवस्थाएं हो जाती हैं । अग्नि की वे ही सातों अवस्थाएँ क्रमश:-अग्नि, वायु, इन्द्र, आदित्य, वरुण, मृत्यु, ब्रह्मा, इन नामों से प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार सप्तदेवस्वर्गतीन विष्टपस्वर्ग-इन सब की समष्टि-रूप नवाहयज्ञ की प्रतिमारूप सौराग्निमय संवत्सर अचलरूप से खड़ा हुआ है । इस संवत्सर में सभी स्वर्गों का समावेश है। दूसरे शब्दों में यह स्वर्गों का टीला (पर्वत) है । अतएव इसे स्वर्गधरुण कहा जाता है । मिट्टी-पाषाण आदि का जो एक उन्नत समूह होता है, उसे प्रान्तीय भाषा में टीला कहा जाता है। इसी के लिए वेद भाषा में ‘धरुण’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। संवत्सर क्या है, स्वर्ग का धरुण है । प्रतिष्ठातत्व को ही धरुण कहा जाता है । सौर संवत्सर ही त्रैलोक्य की प्रतिष्ठा हैं । इस प्रतिष्ठा की भी मूलप्रतिष्ठा एकविंशस्थ आदित्य है, अतएव इसे भी ‘घरुण’ शब्द से व्यवहृत किया जाता है, जैसा कि वाजिश्रुति कहती है-

“असावेवादित्यो धरुण एकविंशः। तद्यत्तमाह धरुणमिति, यदाह्येवैषोऽस्तमेति-अथेदं सर्वं ध्रियते” ( शत० ८/४/१/१२) । “प्रतिष्ठा वै धरुणम्” ( शत० ७।४।२।५) ।

संवत्सर स्वर्गरूप धरुण (प्रतिष्ठा) है, इसलिए भी इसे स्वर्गधरुण कहा जासकता है । यही स्वर्गधरुण अथर्ववेद में ‘स्कम्भ‘ (थम्बा) नाम से व्यवहृत हुआ है – “स्कम्भे संघ प्रतिष्ठित,” (अथर्व सं० १०/४/७/३०) । यह अग्निस्कम्भ (संवत्सर) अविचाली रूप से खड़ा है। यही द्यावा-पृथिवी का आलम्बन है। इस स्कम्भरूप स्वर्गधरुण के ऊपर (केन्द्र में) स्थिररूप से सूर्य तप रहा है । संवत्सरचक्र आग्नेय है। यही एकचक्रात्मक (एक पहिए वाला) अग्निमय मण्डल सूर्य का सुनहरा रथ है।

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