ततः प्रत्यकचेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च । योगसूत्रम् 1-29.
उससे प्रत्यक् चेतन का साक्षात्कार होता है और समस्त अन्तराय विलीन होता है ।
प्रत्यक् शब्द का एक अर्थ पश्चिम है, जो सूर्य के अर्थात प्रकाश के दिशा के विपरीत है । प्रकाश ही उसके विपरीत दिशा में अवस्थित वस्तु का दर्शन कराता है । उसीप्रकार अन्तर्यामी बाहर के संसार के वस्तुओं को प्रकाशित करते हैं । प्रतीपं विपरीतं अञ्चति विजानाति इति प्रत्यक् – अर्थ में आत्मा के विपरीत अनात्म्य भाव के बोद्धा को प्रत्यक् चैतन्य कहा जाता है । केवल पुरुष कहने से मुक्त, बद्ध, ईश्वर आदि समस्त प्रकार के पुरुष को निर्देशित करता है । अतः विद्यावान् /अविद्यावान् पुरुष का स्व स्वरूप चिद्रूपावस्था दर्शाने के लिये, प्रत्यक् चेतन शब्द का व्यवहार किया गया है । विषयों का प्रतिकूल अथवा आत्माभिमुखी चैतन्य अथवा दृक्शक्ति ही प्रत्यक् चेतन है । बुद्धियुक्त पुरुष वा भोक्ता प्रत्येक पुरुष ही प्रत्यक् चेतन है ।
ग्रहणतत्त्व तथा ग्रहीतृतत्त्व हमारा आत्मभाव का अङ्गभूत है । अतः उनका अनुभूति तथा साक्षात्कार किया जा सकता है । उसके लिये प्रथमतः शाब्दिक चिन्ता उनका उपलब्धिका हेतु होनेपर भी शब्दशून्य भाव से उनका भावना किया जा सकता है । निर्वितर्क तथा निर्विचार ध्यान ऐसे ही किया जाता है । परन्तु आत्मभाव के बहिर्भूत ईश्वर का भावना शब्दव्यतीत नहीं हो सकता । वह भावना भी कुछ गुणवाची वाक्य का चिन्तामात्र है – जैसे कि “जो क्लेशशून्य, कर्मशून्य” आदि । परन्तु उस “जो” का धारणा करने के लिये – उसमें अपना चित्त स्थिर करने के लिये उस अनेक गुणवाची भाव का – नानात्व का – त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है ।
परन्तु जिसकी धारणा हम कर सकते हैं – जिसे एक सत्ता के रूप से अनुभव कर सकते हैं – उसे ग्रहीता, ग्रहण, ग्राह्य – इन तीन जाति के तत्त्वों के अन्तर्गत होना पडेगा । अर्थात् उसका रूप, रस, आदि के रूप में अथवा बुद्धि, अहंकार आदि के रूप में धारणा करना पडेगा । बाह्य स्वरूप में धारणा करने के लिये रूपादियुक्त भाव से तथा अन्तर्यामी रूप में धारणा करने के लिये बुद्ध्यादि रूपे धारणा करना पडेगा । इसीलिये कहा गया है कि योगारम्भे मूर्त्तहरिममूर्त्तमथ चिन्तयेत् (योगसूत्रम् 1-28) ।
बुद्ध्यादि आत्मभावस्वरूप में ही उपलब्ध होते हैं – अर्थात् हम केवल अपने बुद्धि का ही अनुभव कर सकते हैं – किसी दुसरे का बुद्धि नहीं । अतः आत्मभाव से ईश्वरकी धारणा करने के लिये सोsहम् धारणा करना ही पडेगा । यह ईश्वर प्रणिधान हृदय के मध्य में करना चाहिये । यह हृदय क्या है ? वक्ष के भीतर जिस प्रदेश में प्रेम, सौमनस्य आदि होने से हमें सुख का बोध होता है – उसी प्रदेश को हृदय कहते हैं । अनुभव का अनुसरण कर के उसे हृदय प्रदेश में स्थिर करना होता है । स्नायु, रक्त, मांस आदि का विचार कर के हृदय पुण्डरीक में धारणा करने से सुफल नहीं मिलता । हृदय में रागादि मानस भाव का प्रतिफलन (reflex action) होता है । उस प्रतिफलित भाव को हम हृदयस्थान में अनुभव करते हैं । परन्तु चित्तवृत्ति कहाँपर है, इसका अनुभव नहीं होता । इसीलिये हृदयप्रदेश में ध्यान करके बोधयिता के पास जाना सहज है । यह हृदयप्रदेश दैहिक अस्मिता का केन्द्र है । मस्तिष्क चैतिक केन्द्र तो है, परन्तु कुछ देर चित्तवृत्ति रोध करने से लगता है जैसे हम हृदय में उतर आये हैं । हृदयप्रदेश में ध्यान के द्वारा सूक्ष्म अस्मिता का उपलब्धि कर के सूक्ष्मधारा क्रम से मस्तिष्क के अन्तरतम प्रदेश में जाने से अस्मिता का सूक्ष्मतम केन्द्र मिलता है । उस समय हृदय और मस्तिष्क एक हो जाते हैं । यह ध्यान अभ्यस्त होने से ईश्वर में स्थिति जात आनन्दमय बोध से ही “मैं” यह स्मरण कर के ग्रहण तत्त्व में जाना होता है ।
ईश्वर स्वरूपतः चिन्मात्र रूप में प्रतिष्ठित हैं । अतः स्वरूप ईश्वर में द्वैत (ग्राह्य) भाव से स्थित होने की योग्यता मन की नहीं है । कारण चित् स्वबोध है । वह आत्मबहिर्भूत अथवा अनात्म्य भाव से ग्रहण करने योग्य नहीं है । जो आत्मबहिर्भूत भाव से ग्रहण किया जा सकता है, वह ग्राह्य हो सकता है । अतः चैतन्य को वैसे ग्रहण करने से जो गृहित होगा, वह चैतन्य नहीँ होगा – रूपरसादि युक्त देशव्यापी पदार्थ होगा । ईश्वर को पूर्वोक्त प्रणाली में भावना करते हुये जिस स्व स्वरूप चिन्मात्र में स्थिति होता है, उसे ही ईश्वर को अपने आत्मा में अवलोकन करना कहते हैं । आत्मा को आत्मा में अवलोकन करने का अर्थ भी वही है ।
व्याधि (धातु, रस तथा इन्द्रियों के विषमता), स्त्यान (चित्त का अकर्मण्यता), संशय (उभयदिक् स्पर्शी विज्ञान – यह अथवा वह – ऐसी बुद्धि), प्रमाद (समाधि के साधन सकल को भावना नहीं करना), आलस्य (शरीर तथा चित्त का गुरुत्व वशत्व अप्रवृत्ति), विषय सन्निकर्ष अथवा विषय भोगरूपी तृष्णा), भ्रान्तिदर्शन (विपर्यय ज्ञान), अलब्धभूमिकत्व (समाधिभूमि का अलाभ), अनवस्थितत्त्व (लब्धभूमि में चित्त का अप्रतिष्ठा) – यह 9 प्रकार के चित्तविक्षेपकारी अन्तराय है (योगसूत्र 1- 30) । ईश्वरप्रणिधान करने से यह सारे अन्तराय दूर हो जाते हैं तथा योगी को स्वरूपदर्शन होता है ।
जैसे ईश्वर शुद्ध (धर्माधर्म रहित), प्रसन्न (अविद्यादि क्लेशशून्य), केवल (बुद्ध्यादि हीन), अतएव अनुपसर्ग (जाति, आयु तथा भोग शून्य) पुरुष, साधक का अपना बुद्धि का प्रतिसंवेदी जो पुरुष है, वह भी उसी प्रकार का है । ऐसे ही प्रत्यगात्मा का साक्षात्कार होता है ।