विचारशून्यता

ॐ इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमा॑हु॒रथो॑ दि॒व्यः स सु॑प॒र्णो ग॒रुत्मा॑न् ।
एकं॒ सद्विप्रा॑ बहु॒धा व॑दन्त्य॒ग्निं य॒मं मा॑त॒रिश्वा॑नमाहुः ॥

ऋग्वेदः १-१६४-४६ ॥

वही एक आदित्य (सूर्य) के महिमाओं को जाननेवाले इन्द्र (सबका ईन्धन), मित्र (विपरीत – द्वन्द – के माध्यम से हितसाधन करनेवाला), वरुण (सङ्कुचित कर सबका संहति करनेवाला), सुपर्ण (अन्तरिक्षमें गतिशील रश्मी – cosmic rays), अग्नि (सवका प्रेरक), यम (अवसान का नियन्त्रक), मातरिश्वा (अन्तरिक्ष में सबको गतिमान करनेवाला) नाम से कहते हैँ ।

वेदोऽखिलो धर्म्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥ मनुसंहिता २-६ ॥ 

वेद ही अखिल धर्मका मूल है । वेदवेत्ताओं द्वारा प्रणीत स्मृतियां तथा उनका आचार (सत्पुरूषों का आचरण) आत्माकी प्रसन्नता केलिए है (जिसे करनेसे भय, शङ्का, लज्जा आदि न होकर आत्माको प्रसन्नताका अनुभव हो, वही धर्मके मूल हैं) ।

रामकृष्ण परमहंस ने कहा है, जो सबको दिखाकर करोगे, वह पुण्य है । जो छिपाकर करोगे, वह पाप है ।

वाच्यार्थ लक्षार्थ भेदात्तद्द्विधा भिद्यते श्रुतौ । 
तूरीय एव लक्षार्थः प्रणवस्येतिकीर्त्तीतः ॥

विचारः विशेषेण चरणं – तत्त्वनिर्णयः – अप्रत्यक्ष अर्थसाधनम् । प्रमाण द्वारा किसी वस्तुका तत्त्वनिर्णय करना अथवा मनन द्वारा किसी वाक्य का पदार्थ, वाच्यार्थ तथा लक्षार्थ का निर्णयकर तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को विचार कहते हैँ । यह मन, बुद्धि, चित्त तथा अहङ्कार रूपी अन्तःकरण चतुष्टय का कार्य है । 

मनोबुद्धिरहङ्कारश्चितं करणमान्तरम् ।
संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी ।

मन का कार्य इन्द्रियों द्वारा ग्रहित विषय को बुद्धि के सम्मुख प्रदर्शित करना है । चित्त का कार्य स्मरण करना है । बुद्धि का कार्य स्मरित विषय के आधार पर विकल्प निर्णय करना है । उस निश्चय को “मैं जानता हुँ” इस प्रकार से अस्मिता रूपी अभिमान करना अहङ्कार का कार्य है । इसे ही इन्द्रियजन्य ज्ञान (प्रतीति) कहते हैँ । प्रतीतिस्तु वस्त्वन्तर प्रकाशः स्वभावाः – यह ज्ञान अपने से भिन्न (वाह्य) वस्तुओं को प्रकाशित करता है । कारण – पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् । इन्द्रियों की वृति बहिर्मुखी है । अतः वे बाह्य जगत् को ही दृश्य बनाते हैं ।

ज्ञानजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या कृतिः भवेत् ।
कृतिजन्या भवेत्कार्यं तदेतत्कृतमुच्यते ॥

व्यावहारिक ज्ञान का फल इच्छा है (ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना – गीता १८-१८) । अपनेलिए अथवा किसी अन्य के लिए अप्राप्तवस्तु की प्रर्थना इच्छा है । यह प्रयत्न, स्मृति, धर्म और अधर्म का कारण है । काम, अभिलाषा, राग, सङ्कल्प, वैराग्य, उपधा (अन्यको ठगने की इच्छा), एवं भाव प्रभृति इच्छा के ही भेद है । इच्छा से कृति, कृति से प्रयत्न (यतँ निकारोपस्का॒रयोः॑ – जीवनपूर्वक – जीवित रहने के लिए जैसे श्वास-प्रश्वास लेना, अथवा इच्छाद्वेषपूर्वक – अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति के लिए अथवा अवाञ्छित वस्तुकी परिहार केलिए चेष्टा) तथा उससे (गुरुत्व, द्रवत्व, प्रयत्न तथा संयोगसे) कर्म जात होते हैं । कर्म जब सिद्ध होजाता है तब साध्यरूपा उसके फल, मूर्तरूपसे (मूर्त्तीरसर्वगतद्रव्यपरिमाणम्, तदनुविधायिनी च क्रिया – सीमित वस्तुओं से युक्त परिमाण को मूर्त्ति कहते हैँ । जहाँ मूर्त्ती रहती है, वहीँ क्रिया होती है) क्रिया बनकर दृष्टिगोचर होता है । 

जहाँ हम किसी इच्छासे कुछ लाभकरनेका प्रयत्न करेंगे, वहाँ हमें उपादान संग्रह करनापडेगा । उपादानसंग्रह करने से पूर्व हमें वस्तु का चरित्र (स्वभाव) – जैसे कि उसका गति (चरँ गत्य॑र्थाः – चरवृत्तियुक्त – आगे चल कर उसका क्या स्वभाव अथवा फल होता है) तथा वह अन्य पदार्थों को कैसे अपने में समाहित करता है (चरँ भक्ष॑णे) – का विचार करना पडता है । इस विचार को चारित्र्यम् (technology) कहते हैं । इससे स्पष्ट है कि Philosophy आगे चलकर Metaphysics को जन्म देती है । परन्तु दर्शन (एकमेव दर्शनम्, ख्यातिरेव दर्शनम् – दर्शनम् एक है – दृश्यतेऽनेनेति, दृ॒शिँर् प्रेक्ष॑णे, ईक्षँ॒ दर्श॑ने – जिससे सब कुछ के विषयमें जो जानने योग्य है, वह जाना जाता है, वह दर्शनम् है – परम ज्ञान) से विज्ञानम् (किसी सीमित विषयमें विशिष्ट ज्ञानम्) तथा विज्ञानम् आगे चलकर चारित्र्यम् (technology) को जन्म देता है । दर्शनम् Philosophy नहीँ है । 

दृष्टश्रुतमननञ्च निदिध्यासनमेव च । 
एते पन्थाः विवुधानां ज्ञानमार्गानुयायिनाम् ॥

विचार कैसे करते हैँ ? क्या यह अपने धी शक्ति से करते हैँ ? क्या दर्शन, श्रवण, मनन, निदिध्यासन ही ज्ञानप्राप्ति के मार्ग है ?

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥
कठोपनिषद्,अध्याय-१,वल्ली-२/२३ ॥

यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञानलाभ न प्रवचनों से प्राप्त किया जा सकता है, न धी शक्ति – बौद्धिक क्षमता – से अथवा शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से । जो इसकी वरण किये जाने योग्य बनने का जो कारण है, और स्मरण किया जाने वाला – आत्मज्ञान (अत्यन्त प्रिय होने से जो स्वयं भी अत्यन्त प्रियरूप है), ऐसे चिन्तन प्रवाह करता रहता है, उसे ही यह ज्ञान प्राप्त होता है – उसी के समक्ष यह आत्मज्ञान अपना स्वरूप उद्घाटित करता है ।

आचार्यात्पादमादत्ते पादं शिष्यः स्वमेधया । 
पादं सब्रह्मचारिभ्यः पादं कालक्रमेण च ॥

गुरु मुख से श्रवणकर अधीत विषय को स्मृति में धारण करने से पादमात्र (एक चतुर्थांश) ज्ञान प्राप्त होता है । उसका मनन पारायण करने से पादमात्र (समग्र द्विपाद) ज्ञान प्राप्त होता है । सहपाठीयों के साथ आलोचना से तृतीय पाद ज्ञान प्राप्त होता है । कालक्रम से अपने अनुभव तथा भगवत् अनुग्रह से पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है ।

प्रमाण क्या है ? यह प्रमा का करण है – तत्त्वनिर्णय करने का – उद्देश्य, लक्षण, परीक्षा, इन तीनों, प्रवृत्तियों को चरितार्थ करने का – साधन है । प्रमाण की सिद्धि कैसे होती है ? प्रवृत्ति सामर्थ्य से । वह कैसे ? बिना प्रमाण के यथार्थ प्रतीति नहीँ होती । बिना यथार्थ प्रतीति के प्रवृत्ति (कुछ पाने अथवा त्यागने की इच्छा तथा उसके अनुकूल चेष्टा) नहीँ होती । प्रमाण से ही ज्ञाता अर्थ को प्रतीत करके उसके प्राप्ति (सुख) अथवा परित्याग (दुःख) के चेष्टा करने पर (यह करने से सुख होगा, अन्यथा दुःख होगा) वह प्रवृत्ति फलप्रद होता है – यह अनुभवसिद्ध है । यही प्रमाण सिद्धि है ।

प्रमाण मुख्यतः प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, तथा शब्द भेद से चतुर्विध है (अन्य प्रमाणभेद इसीके अन्तर्गत आ जाते हैँ) । इन्द्रियग्राह्य विषयों के साथ उस इन्द्रिय का सन्निकर्ष (सम्बन्ध) द्वारा उत्पन्न अव्यपदेश्य (अशाब्द – जो शब्दप्रमाण न हो) अव्यभिचारी (परीक्षा से यथार्थ सिद्ध) व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैँ । किसी प्रत्यक्ष के द्वारा लिङ्ग तथा लिङ्गी (हेतु एवं साध्य धर्म) का सम्बन्धदर्शन (व्याप्य-व्यापकभाव सम्बन्ध का प्रत्यक्ष एवं लिङ्गदर्शन – हेतु का प्रत्यक्ष) द्वारा लिङ्गस्मृति (अर्थात अनुमेय पदार्थका व्याप्यत्व रूप से उस हेतु का स्मरण) अभिसम्बन्ध है – अभिप्रेत है । स्मृति के द्वारा अर्थात पूर्वोक्त लिङ्गस्मरण के द्वारा एवं लिङ्गदर्शन के द्वारा अप्रत्यक्ष पदार्थ का तत्त्वनिर्णय करना अनुमान है । प्रसिद्ध पदार्थ के साथ सादुश्यप्रयुक्त साध्यसाधन अर्थात किसी साध्यपदार्थ का निश्चय का कारण उपमान है । आप्तोपदेश – प्रतिपाद्य विषय का यथार्थ ज्ञानसम्पन्न अप्रतारक (जो छद्मवेषमें प्रतारणा न करता हो) उपदेष्टा का उपदेश से जात प्रमा (अनुभूति) शब्दप्रमाण के करण है । वेद शब्दप्रमाण है ।

विचार भावना है । भावना मन का संस्कार (inertia of mind) है । संस्कार (inertia) – निमित्तविशेषापेक्षात् कर्मणो जायते (सं सम्यक् + कॄ विक्षे॒पे + भावे घञ् । प्रतियत्न, गुणान्तर आधान) । यह विशेष प्रकार के निमित्त कारणों की सहायता से (इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष अथवा स्मृति आदि से भी) क्रिया (मानसक्रिया भी) के द्वारा उत्पन्न होता है । यह किसी नियमित देश में गुणान्तर आधान पूर्वक क्रियासमूह का कारण है । बेग (inertia of motion), भावना (thought or inertia of mind), स्थितिस्थापक (elasticity or inertia of restoration) भेद से यह त्रिविध है ।

भावनासंज्ञकस्त्वात्मगुणो दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानहेतुर्भवति ज्ञानमद्दुःखादिविरोधी । पट्वाभ्यासादरप्रत्ययजः । पटुप्रत्ययापेक्षादात्ममनसो संयोगादाश्चर्येऽर्थे पटुः संस्कारातिशयो जायते। विद्याशिल्पव्यायामादिष्वभ्यस्तमानेषु तस्मिन्नेवार्थे पूर्वपूर्वसंस्कारमपेक्षमाणादुत्तरोत्तरस्मात् प्रत्ययादात्ममनसोः संयोगात् संस्कारातिशयो जायते । 

पूर्वसे देखे हुए, सुने हुए तथा अनुमान द्वारा ज्ञात अर्थों की स्मृति तथा प्रत्यभिज्ञा का कारणीभूत संस्कार ही भावना है । ज्ञान, मद, दुःख आदि से वह वाधित होता है । पटु अभ्यास, आदर तथा ज्ञान से उत्पन्न होता है । पटु (अनुपेक्षात्मक) ज्ञान तथा आत्म-मन के संयोग से अद्भूत विषयों में पटु ज्ञान होता है । विद्या शिल्प एवं व्यायाम का अभ्यास से उन्ही विषयों का पूर्व-पूर्व संस्कारों से उत्पन्न प्रतीतियों (स्मृतियों) के कारण आत्मा तथा मन के संयोग से एक विशेष प्रकार के संस्कार की उत्पत्ति होती है । उसे ही भावना कहते हैँ । अतः विचार जात ज्ञान स्मृतिपूर्विका होता है (स्मृतिपूर्वानुभूतार्थो विषयं ज्ञानमुच्यते) । मुमुक्षु व्यवहार प्रकरणमें ज्ञानभूमि के द्वितीय अवस्था विचारणा है ।

ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता । 
विचारणा द्वितीया स्यात्‌ तृतीया तनुमानसा ॥ 

सत्त्वापत्तिऽचतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका । 
परार्थंभाविनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगास्मृता ॥ योगवासिष्ठ ॥ 

प्रथमा शुभेच्छा, द्वितीया विचारणा, तृतीया तनुमानसा, चतुर्थी सत्त्वापत्ति, पंचमी असंसक्ति, षष्ठी परार्थभाविनी एवं सप्तमी तुर्यंगा-भूमिका कहलाती है । इन सातों के एक अपर से आबद्ध होने पर ज्ञान के एक एक स्तर की प्राप्ति होती है ।

शून्यता के विषयमें जानने के लिए सङ्ख्या के विषयमें जानना पडेगा । 

न विना सङ्ख्ययाकश्चित् सत्वभूतोऽर्थ उच्यते । 
अतः सर्वस्य निर्देशे सङ्ख्या स्यादववक्षिता ॥

सम्यक् ख्यानं संख्या । विशिष्टरूप से किसी तत्त्व का (अन्य तत्त्वों से भेद प्रदर्शन पूर्वक) स्वरूप प्रकथन को संख्या कहते हैं (भेदाभेद विभागोहि लोके संख्या निबन्धन) । यह मूर्तपदार्थों का एक स्वाभाविक गुण है । यह एकद्रव्या (एक द्रव्यमें रहनेवाली) तथा अनेकद्रव्या (अनेक द्रव्योंमें रहनेवाली) भेद से द्विविध है । 

एकोऽल्पार्थे प्रधाने च प्रथमे केवले तथा ।
साधारणे समानेऽपि सङ्ख्यायां च प्रयुज्यते ।

जो सर्वत्र अभेदरूप से प्रतीत होता है, वह एक है (एक इता संख्या । इता अनुगता सर्वत्र या संख्या सा एक) ।

द्वितीयादिषु यल्लिङ्गमुक्तं न्यायानुवादि तत् । 
न सङ्ख्या साधनत्वेन जातिवत्तेन गम्यते ॥

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां सङ्ख्याभ्युपगमेसति । 
युक्तं यत्साधनत्वंस्यान्न त्वन्यार्थोपलक्षणम् ॥ 

द्वि आदि सङ्ख्या, एक ही जाति के एक और एक – इस प्रकार के विचार से उत्पन्न होती है । अनेक एकत्व की बुद्धि एवं अनेक एकत्व – इन सबों से इसकी उत्पत्ति होती है । प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण परिवर्त्तनशील है । यह क्रिया है । क्रिया परिणाम है । अतः परिणाम विशेष के अनुसार सङ्ख्याविभाग होता है । 

द्वौ द्रुततरा सङ्ख्या, त्रयस्तीर्णतमा सङ्ख्या, चत्वारश्चलितसमा । पञ्च पृक्ता संख्या, पाङ्क्तो वै यज्ञः, मिलिता संख्या पञ्च । ष्ट्यै॒ शब्दसङ्घा॒तयोः॑ – अंशके अवयवे सटति । सप्तन् – षपँ समवा॒ये । अष्टावश्नोते – अशूँ॒ व्या॑प्तौ सङ्घा॒ते च॑ । नव न वननीया (संभजनीया), नावाप्ता वा । दश दस्ता दृष्टार्था वा – दस्ता उपक्षीणा – दसुँ उपक्ष॒ये । या पुनर्नबर्धते सा सङ्ख्या दश । विंशतिर्द्विदशतः, शतं दशदशतः । आदि ।

एक के पश्चात् द्रुत लक्षित होनेवाले सङ्ख्याको द्वि कहते हैँ । उसके पश्चात् स्वाभाविक उपलब्ध होनेवाली सङ्ख्याको त्रि कहते हैँ (तॄ प्लवनतर॒णयोः॑) । यह सामान्य प्रचेष्टामें वच्चों तथा पशुओंके समझमें आ जाता है । परन्तु इसके आगे जानने के लिए विशेष प्रयत्न लगता है । अतः परवर्ती सङ्ख्या चार है (चत्वारश्चलितसमा) । सम्बन्धों में स्थिरता लानेवाली (पाङ्क्तो वै यज्ञः) सङ्ख्या पञ्च है (पञ्च पृक्ता संख्या), जैसे पञ्चभौतिक । इसीलिए ब्रह्म-कर्म्म का संसर्ग भी पञ्चविध होते हैँ – स्थानावरोध (exclusion principle), सामञ्जस्य (superposition principle), एकभाव्य (coupling, which can decay naturally), एकात्म्य (coupling, which can decay only through chemical reaction), भक्ति (translation of motion – भजँ वि॒श्राण॑ने, श्रणँ(म्) गतौ॑ दा॒ने च॑ – जैसे गाडीमें वैठे हुए आप उसके गति से गतिशील होते हैँ) ।

अवयव-सङ्घात से सृष्टि करनेवाला सङ्ख्या षट् है जैसे षड् ऋतु (for this reason, we have six quarks) । यामसम्बन्ध (fundamental interaction) भी छह प्रकार के होते हैँ – अन्तर्याम (strong interaction), वहिर्याम (weak interaction – beta decay), उपयाम (electromagnetic interaction), यातयाम (alpha decay), उद्याम (gravitational interaction), आप्तोयाम (chemical bonding) ।  उपादान विकल्प से सङ्ख्या सप्त है – जैसे सप्तवातस्कन्ध (seven varieties of gravitation – आवह, प्रवह, संवह, विवह, अनुवह, परावह, परिवह – that can explain everything about gravitation) ।  वसु (अग्निभेद जो सव को वसा रखा है – eight gluons – अग्निश्च जातवेदाश्च । सहोजा अजिराप्रभुः । वैश्वानरो नर्यापाश्च । पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः । विसर्पो वाऽष्टमोऽग्निनाम् । एतेऽष्टौ वसवः क्षिता ॥ तैत्तिरीयारण्यक १।९।१) भेद से परवर्ती सङ्ख्या अष्ट है । परवर्ती सङ्ख्या नव है, कारण उसके आगे का विभाग नहीँ हो सकता । किसी सङ्ख्या को नौ से गुणा करके उस अङ्कके सङ्ख्यायोंको योग करनेसे नौ ही आएगा । परवर्ती सङ्ख्या दश है । उसके पश्चात सब उपक्षीण हो जाते हैँ – बढते नहीँ । जैसे एकादश, द्वादश, द्विदश (विंश), दशदश (शत) दशशत (सहस्र) आदि । अतः उसे दश कहते हैँ । उपक्षीण हो जाने से, अभावात्मक शून्य लिखा जाता है । वृद्धि के कारण अङ्कानां वामतो गति न्याय से शून्य के वाम में एक लिख दिया जाता है । इसी से १० बनता है ।

शून्य गतिशीलता के प्रतीक है (शुनँ गतौ॑) । जो यहाँ से अन्यत्र चलागया अथवा यहाँ अनुपस्थित है – यहाँ सत् रूप से वर्तमान नहीँ है – उसका अभाव है – उसे शून्य कहते हैँ ।

असतः क्रियागुणव्यपदेशाभावादर्थान्तरम् ।

जो विद्यमान नहीँ है, उसका नाम-रूप-कर्म का विवेचन नहीँ किया जा सकता । सङ्ख्या एक गुण है । अतः इसका किसी न किसी द्रव्य के साथ सम्बन्ध अवश्य होगा (सङ्ख्या सर्वस्य भेदिका) । जिसका अंश नहीँ है, वह एक अथवा अनन्त है । यह सम्बन्ध समवाय सम्बन्ध (एक आश्रय एवं एक आश्रितों का जो अयुतसिद्ध – कभी न टुटनेवाला – आधाराधेय सम्बन्ध) अथवा संयोग सम्बन्ध (संयुक्त विषयक प्रतीति, अप्राप्त मिलन का कारण – अप्राप्तयोस्तु या प्राप्ति) हो सकता है । शून्य संसर्गाभाव – क्रिया, गुण, व्यपदेश (व्याजेन – स्व स्वरूपात् भिन्न भावेन आत्म अभिलाषोक्ति – नाममात्र) सम्बन्धों का अभाव को दर्शाता है । शशशृङ्ग जैसे अत्यन्ताभाव को नहीँ ।

रस (रसो वै सः – तैत्तिरीयोपनिषत्) का एक प्रदेश को त्याग कर अन्य प्रदेशमें जानेवाला बल (नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो – मुण्डकोपनिषत् ३-२-४) ही क्रिया है । क्रिया परिच्छिन्न वस्तुमें कम्प अर्थात स्थानच्युति करती है । परन्तु रस विभु होने से अवयवरहित है । सर्वत्र उसका उपस्थिति है । अतः उसमें स्थानच्युति सम्भव नहीं है । वह अच्युत है । क्रिया भी वहाँ आकर शान्त हो जाती है । वह अव्यय है । अतः उसका औपादानिक अथवा लाक्षणिक परिणाम नहीं होता । बल के सहायता से जो अन्तर्यत्न (चेष्टा, प्रयत्न, कृति आदि) किया जाता है, उसे प्राण कहते हैं । जहाँ से प्राण का रश्मि निर्गत होता है, उसे मन कहते हैं । मन ही इच्छा का जनक है । इच्छा के द्वारा प्राणव्यापार होता है । प्राण के द्वारा वाक् (समस्त विषय जो नाम-रूप-कर्म के द्वारा निर्देशित होते हैं) व्यापार होता है (न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धं इव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥ वाक्यपदीयम् १-१३१ ॥) । वाक् के बिना हम विचार भी नहीँ कर सकते ।

विचार वाक् (व॒चँ परि॒भाष॑णे) के माध्यम से ही सम्भव है । शून्यता संसर्गाभाव का द्योतक है । अतः विचारशून्यता वाक् शून्यता है । यह दो ही क्षेत्र में सम्भव है । सुषुप्ति अथवा असम्प्रज्ञात समाधि । 

लोक व्यवहार में जो विचारशून्यता शब्द का प्रयोग होता है, वह विचारशून्यता नहीँ, अपर्याप्त विचार द्वारा प्ररित कार्य है, जिसका परिणाम दुःखपुर्ण है । अतः हेय है । सर्वदा पर्याप्त विचारपूर्वक कर्म करना चाहिए । कथित है कि –

शास्त्रं सुचिन्तितमपि प्रतिचिन्तनीयम् ।
आराधितोऽपि नृपतिः परिशङ्कनीयः ।

अङ्के स्थितापि युवतिः परिरक्षणीया ।
शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतो वशित्वम् ॥ 

कितना ही विचार कर लो, शास्त्र सदा विचार करते रहना चाहिए । जितना भी सेवा कर लो, राजा से सावधान रहना चाहिए । अपने अङ्कपर लिए हुए भी, युवति की रक्षा करने चाहिए । शास्त्र, राजा और युवती किसी के वश में नहीँ रहते । इसीलिए कहा गया है कि –

यः शास्त्र-विधि-मुत्सृज्य वर्तते कामचारतः। 
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥ गीता १६1२३ ॥

जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही ॥

सुखं वाञ्छति सर्वो हि तच्च धर्म्मसमुद्भवम् । 
तस्माद्धर्म्मः सदा कार्य: सर्वैः वर्णैः प्रयत्नतः ॥ दक्ष-संहिता ३।२३ ॥

सब सुख चाहते हैँ । धर्म पालन से ही अनिष्ट परिहार हो कर सुख मिलता है । इसीलिए सदा प्रयत्नपूर्वक धर्म का पालन करते रहना चाहिए ।

व्यावहारिकी दृष्टि से –

ज्ञात्वा कर्म्माणि कुर्वीत नाज्ञात्वा कर्म्म आचरेत् ।
अज्ञानेन प्रवृत्तस्य स्खलनं स्यात् पदे पदे ॥

विचारपूर्वक जान कर ही सब कुछ करना चाहिए । अनजाने में कुछ करना नहीँ चाहिए । बिना जाने कार्य करने वालों का पग पग पर स्खलित होने का सम्भावना रहती है ।

पारमार्थिकी दृष्टि से –

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद स: । 
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ।। 
केनोपनिषद , द्वितीय खण्ड, मन्त्र ३ ।।

यस्य अमतं तस्य मतं । यस्य मतं सः न वेद । यस्मात् विजानताम् अविज्ञातम् अविजानताम् विज्ञातम् ॥

जिसके द्वारा ब्रह्म को विचारबद्ध नहीं किया जाता, उसके पास इसका विचार है । जिसके द्वारा इसका मननपूर्वक विचार किया गया है वह इसे नहीं जानता । जो इसका विवेचन करते हैं उनके लिए यह अविज्ञात है । जो इसके विवेचन का प्रयत्न नहीं करते, उनके लिए यह विज्ञात है । कारण अमूर्त ब्रह्म परमवृहत् होने से विषय (वि शब्दो ही विशेषार्थः सिनोतेर्बन्ध उच्यते । विशेषेण सिनोतीति विषयोऽतो नियामकः – confined objects) नहीँ है । अतः वह विषय जैसा जाना नहीँ जा सकता ।

ॐ विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव । यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व ॥३॥
शुक्लयजुर्वेद काण्वशाखा ३४-३

श्रीवासुदेवमिश्र शर्म्मा।

Vichara Shunyata